न पास है कोई मेरे, न साथ है कोई मेरे,
अकेले चल रहा हूँ, न किसी का कोई डर है।
न रास्तों की ख़बर है, न दिख रही लहर है,
मुश्किल ये डगर है, कुदरत का ये कहर है।
हवा से कह रहा हूँ, दिशा जरा बता दे,
नदी से कह रहा हूँ,रह कोई दिखा दे,
पर न दे रहे जवाब, बने हैं ये नवाब,
मगर मैं चल रहा हूँ, चलता जा रहा हूँ।
की बहुत है कोशिश, अपने मन को समझाने की,
भटक न जाए कहीं तू, सोच ले अभी भी,
पर न मन सुन रहा है, न तन सुन रहा है,
न जाने किसकी सुन के, ये चले जा रहे हैं।
कवि ये बैठा था, लिखने अलग विषय पर,
शीर्षक अलग था, भाव भी अलग था,
सूख चुके वृक्ष छाँव दे रहे हैं,
न जाने किसकी धुन पर,ये हाथ थिरक रहे हैं।
याद आ रही थी, बच्चन की मधुशाला,
उनका वो प्रिय प्याला, वो सुरमयी हाला,
सरस्वती के सुर में ये 'हंस 'गा रहा है,
न जाने किसकी याद में ये दिल धड़क रहा है।
Hans
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