Image by HuNo (On & Off) via Flickr
आज फिर वो मुझे मिली,घना कोहरा मुझे उसे पहचानने से रोक रहा था,
पर बादलों को चीरती चांदनी की किरणें,
उसके होने का अहसास करा रहीं थी.
उसने मेरा हाल पूछा,
पर मैं जवाब न दे सका.
उसने फिर पूछा,"क्या सोच रहे हो?"
मैंने कहा,"तुम्हें कहीं देखा है."
हमारे बीच की दूरी को थोडा बढ़ाते हुए वो बोली,
"तुम फिर मुझे नहीं पहचान पाए,
रोज तो देखते हो मुझे."
मैंने प्रश्न किया,"पर कहाँ ?"
जवाब मिला," क्षितिज पर,
जब मैं हाथ हिला रही होती हूँ."
रहस्य के सागर में डूबते हुए मैंने कहा,
" पर क्षितिज तो अनंत पर है,
मुझे तो रास्ता भी नहीं पता."
उसने कहा,"सच है, तुम्हें रास्ता नहीं पता."
ये कहकर वो जाने लगी.
मैंने टोकते हुए कहा,
"पर अपना नाम तो बताती जाओ."
उसने कहा,"मैं मंजिल हूँ."
इतना सुनते ही भोर की पहली किरण ने मेरी आँखें खोल दी.
एक और सपना टूट गया,
एक और रात बीत गयी,
मंजिल मुझसे और दूर हो गयी.
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